साम्प्रदायिक हिंसा हमारी राजनीति का नासूर बन गई है। विभाजन के बाद हुए दंगों ने पूरे देश को हिला दिया था और इनके नतीजे में दुनिया का सबसे बड़ा पलायन हुआ था। किंतु यह, इस विभाजनकारी हिंसा का अंत नहीं था। यह हिंसा इसके बाद भी होती रही, विशेषकर 1980 के दशक में राममंदिर आंदोलन प्रारंभ होने के बाद से। इस आंदोलन ने समाज के एक वर्ग की भावनाओं को भड़काया। समय के साथ, मंदिर आंदोलन और साम्प्रदायिक हिंसा दोनों की तीव्रता बढ़ती गई। हिंसा के इस चक्र में जिस एक घटना ने समाज के तानेबाने को गंभीर हानि पहुंचाई वह थी गुजरात की सन् 2002 की साम्प्रदायिक हिंसा। यह हिंसा गोधरा में ट्रेन जलाए जाने की घटना के बहाने शुरू की गई। ट्रेन जलाए जाने की घटना के रहस्य पर से पर्दा अभी तक नहीं हटा है। इस घटना में 58 निर्दोष कारसेवकों की जान गई। इस घटना के बाद राजसत्ता, अर्थात राज्य सरकार एवं प्रशासन, का कर्तव्य था कि वह जानोमाल की और हानि रोकता।
परंतु, इसके ठीक विपरीत, बताया जाता है कि ट्रेन जलाए जाने की घटना के बाद, उसी दिन शाम को तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बैठक बुलाई। कहा जाता है कि इस बैठक में मुख्यमंत्री ने अधिकारियों से कहा कि वे ट्रेन आगजनी की प्रतिक्रिया में होने वाली घटनाओं से सख्ती से न निपटें। यह बात संजीव भट्ट नामक एक पुलिस अधिकारी ने बताई जो इस बैठक में मौजूद थे। न्यायमूर्ति सुरेश, जो गुजरात दंगों की जांच के लिए गठित जन न्यायाधिकरण में शामिल थे, ने भी इसकी पुष्टि की। ले. जनरल जमीरउद्दीन शाह की आत्मकथा (द सरकारी मुसलमान) में दिए गए विवरण से यह बात एक बार और साबित हो रही है। इस पुस्तक का लोकार्पण 13 अक्टूबर को पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ हामिद अंसारी ने किया।
शाह ने अपने संस्मरण में लिखा है कि तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल पद्मनाभन ने उन्हें 28 फरवरी को ही अहमदाबाद जाने का निर्देश दिया था। जब उनका हवाई जहाज अहमदाबाद हवाईअड्डे पर उतरने के लिए कम ऊँचाई पर था तब उन्होंने देखा कि शहर में जगह-जगह आग लगी हुई है और धुंआ उठ रहा है। हवाई अड्डे पर उतरने पर उन्होंने उन्हें लेने आए अधिकारी से पूछा कि सेना को हिंसा रोकने के लिए वाहन व अन्य ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध करवाई गई हैं या नहीं। जब उन्हें इसका उत्तर न में मिला तो वे सीधे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के निवास पर गए, जहां तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस भी मौजूद थे। उन्होंने भी मुख्यमंत्री से यही अनुरोध किया। सेना की टुकड़ियां 1 मार्च की सुबह अहमदाबाद पहुंचना शुरू हो गईं थीं। एक ओर जहां शहर जल रहा था वहीं पूरे एक दिन सैनिकों को हवाईअड्डे पर बिताना पड़ा क्योंकि उनके लिए वाहनों की व्यवस्था नहीं थी।
शाह लिखते हैं कि सेना को ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध करवाने के दो दिन के अंदर हिंसा पर नियंत्रण पा लिया गया। भारत, जहां साम्प्रदायिक हिंसा का कोढ़ बहुत पुराना है, में हमें इस सवाल पर तो विचार करना ही चाहिए कि हिंसा क्यों शुरू होती है। हमें इस पर भी मंथन करना चाहिए कि वह रूक क्यों नहीं पाती। जल्द से जल्द उसे रोका क्यों नहीं जाता? विभूति नारायण राय, जो सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं, ने इस संबंध में एक अध्ययन किया है। ‘काम्बेटिंग कम्युनल कनफिल्क्टस‘ शीर्षक के इस अध्ययन में यह पाया गया है कि किसी भी प्रकार की हिंसा 24 घंटे से अधिक जारी नहीं रह सकती जब तक कि राज्य ऐसा न चाहे। शाह की पुस्तक में हमारे पुलिस तंत्र के पूर्वाग्रहों पर भी चर्चा की गई है। दंगों की जांच के लिए नियुक्त एसआईटी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि सेना की तैनाती में देरी नहीं हुई। एसआईटी ने सेना से इस संबंध में कोई पूछताछ नहीं की। शाह लिखते हैं कि उन्हें एसआईटी की ओर से जानकारी देने के लिए कोई पत्र आदि नहीं लिखा गया और एसआईटी का यह निष्कर्ष गलत और झूठा है। शाह ने कहा कि सेना की तैनाती में जो देरी हुई थी, उसका विवरण उन्होंने जनरल पद्मनाभन को सौंपी गई अपनी रपट में दिया था।
यह आम धारणा है कि एसआईटी ने मोदी को इस मामले में क्लीन चिट दी थी। यह सही नहीं है। उच्चतम न्यायालय में न्यायमित्र राजू रामचन्द्रन ने एसआईटी के निष्कर्षों से संबंधित अपनी रपट में बताया था कि एसआईटी की रपट के आधार पर मोदी पर मुकदमा चलाया जा सकता है। एसआईटी ने अपनी रपट में यह जरूर कहा था कि मोदी के खिलाफ मुकदमा चलाने के पर्याप्त आधार नहीं हैं परंतु उसी रपट में यह भी कहा गया था कि मोदी साम्प्रदायिक मानसिकता वाले व्यक्ति हैं। वे अहमदाबाद से तीन सौ किलोमीटर दूर गोधरा जाने का समय तो निकाल सके परंतु उन्हें शहर में स्थित किसी शरणार्थी शिविर में जाने का समय नहीं मिला। वे पहली बार किसी शरणार्थी शिविर में तब गए जब प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी अहमदाबाद पहुंचे और जुहापुरा शिविर गए। एसआईटी ने यह भी कहा कि गोधरा कांड के मृतकों के शव विहिप के जयदीप पटेल को सौंपे जाने का निर्णय नुकसानदेह सिद्ध हुआ। एसआईटी ने संजीव भट्ट के इस बयान को भी संज्ञान में लिया कि वे उस बैठक में मौजूद थे, जिसमें मुख्यमंत्री ने प्रशासन को दंगाईयों के साथ नरमी बरतने के निर्देश दिए थे। इसके अलावा, एसआईटी ने कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारियों जैसे आरबी श्रीकुमार, राहुल शर्मा, हिमांशु भट्ट और समीउल्ला अंसारी के स्थानांतरण और मोदी सरकार द्वारा उनकी प्रताड़ना की भी निंदा की थी।
बाबू बजरंगी पर तहलका के स्टिंग आपरेषन से यह जाहिर हुआ कि मोदी ने उसे जो कुछ भी वह करना चाहता था, उसे करने के लिए तीन दिन दिए थे। बाबू बजरंगी अब गुजरात दंगों में अपनी भूमिका के लिए जेल में है। शाह लिखते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा के भड़कने और उसके जारी रहने के पीछे कई कारक होते हैं। सेना की तैनाती में देरी से दंगाईयों का मनोबल बढ़ता है, यह कहने की ज़रूरत नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि सत्ताधारी व्यक्तियों के निर्णय किस तरह आम लोगों को बर्बाद कर सकते हैं। इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि हमारे पुलिस तंत्र की साम्प्रदायिक सोच को बदलने का प्रयास किया जाए।
हमें अपनी अतीत की भूलों से सीख लेनी चाहिए। ले. जनरल जमीरउद्दीन की आत्मकथा हमें बहुत कुछ सिखा सकती है। गुजरात दंगों से निपटने के लिए एक मुस्लिम अधिकारी को चुने जाने के निर्णय की उस समय आलोचना हुई थी। यह तब, जबकि सेना, हमारे देश की उन संस्थाओं में से एक है जिन पर साम्प्रदायिकता के वायरस का कम असर है।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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