इश्क़ में शहर होना
‘इश्क़ में शहर होना’ के चार साल हो गए हैं। इन चार सालों में इसके आठ संस्करण निकले और पचीस हज़ार प्रतियाँ पाठकों की ज़िंदगी का हिस्सा हो गईं। प्रेमियों के साथ-साथ शहर के स्पेस में प्रेम को समझने वाले विद्वानों ने भी इसका अलग से पाठ किया। यह किताब क्रिएटिव राइटिंग कोर्स का हिस्सा बनी। पिछले साल अक्तूबर में अमरीका की येल यूनिवर्सिटी में साउथ एशिया स्टडी सर्किल में इस पर बातचीत हुई। इसका पाठ किया। मुंबई में टाटा लिट फेस्ट में कैरोल एंड्राडी ने टेक्स्ट एंड दि सिटी के नाम से चर्चा आयोजित की जो मुझे इस किताब की अब तक की चर्चाओं में सबसे अधिक पसंद हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक क़ाबिल प्रोफ़ेसर ने भी इसे अपने पर्चे का हिस्सा बनाया है। जिसका पाठ उन्होंने किसी सेमिनार में किया था। उनका नाम याद आते ही यहाँ लिखूँगा। मैंने वो पर्चा देखा नहीं। देखना चाहता हूँ।
मेरे अलावा विनीत कुमार ने भी ‘इश्क़ कोई न्यूज़ नहीं’ नाम से लिखा है। मुझसे बेहतर लिखा है। विनीत कुमार की किताब भी राजकमल से छपी है। एक तीसरी किताब ‘इश्क़ में माटी-सोना’ गिरीन्द्र नाथ झा ने लिखा है। तो लप्रेक श्रृंखला के तीन लेखक हुए। इसी 19 जनवरी को विनीत कुमार राइटिंग वर्कशॉप में इस पर बात करने वाले हैं। इसका आयोजन जगरनॉट प्रकाशन ने किया है। आप सभी जा सकते हैं।यह सब इस किताब के चौथे साल में हो रहा है। स्पीकिंग टाइगर्स ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित किया है। A City Happens In Love नाम से कवि अखिल कत्याल ने अनुवाद किया है। अखिल ने भी इस किताब को अपनी नज़र से समझा है। इश्क़ में शहर होना को छापा राजकमल प्रकाशन ने है मगर कई प्रकाशनों का प्यार इसे मिला है। मिल रहा है।
इस किताब के दो लेखक हैं। एक मैं और दूसरे विक्रम नायक। बल्कि विक्रम ही अकेले हैं जो तीनों किताबों के लेखक हैं। उन्होंने अपनी चित्रकारी से इसे अमर बना दिया है। तंग होते शहरों में सुस्त गलियों की तलाश में प्रेमी इस किताब को याद करते रहेंगे। विक्रम के स्केच सा शहर ढूँढते रहेंगे। मेरी वाली किताब में बारापुला फ्लाईओवर का एक प्रसंग है। बारापुला फ़्लाइओवर का जब विस्तार हुआ तो उसमें ख़राब होने वाली गाड़ियों को बीच रास्ते से हटाकर किनारे रखने की अलग से जगह जोड़ी गई है। मैं अक्सर वहाँ ओला उबर टैक्सियों के डाईवर को सुस्ताते देखता हूँ और उनकी कार के पीछे प्रेमियों को सेल्फी लेते ! एक लेखक के नाते अपनी किताब को लोगों के जीवन में घटते हुए देखते जाना भी इश्क़ में शहर होना है।
हमने तो ख़ूब सारी लघु प्रेम कथाएँ लिख डाली थीं। क्या मालूम कौन सी कथा अच्छी थी। सुदीप्ति ने उन कथाओं में से पाठकों के लिए चुना था। वैसे यह किताब संपादक सत्यानंद की कल्पना थी। जब पहली बार आई तो ख़ूब गुलाबी थी। किताब का कवर शानदार था। आठों संस्करण में कवर और उसका रंग कुछ न कुछ बदला है। इस बार तो गुलाबी से सफ़ेद हो गया है। ये कवर भी मुझे पसंद आया है। उर्दू में भी अनुवाद हो रहा है।
आप सभी पाठकों को ख़ूब सारा प्यार। हम सबको इश्क़ में शहर होते रहना है।
बिहार की हर हलचल एक नजर में
No comments:
Post a Comment